Friday, November 7, 2014


फिर समेटना, फिर बिखरना..
बिखरे हुए टुकड़ो को समेटकर, एक नयीं तस्वीर बनाना..
और फिर एक दिन उसी तस्वीर को तोडकर कुछ नयी पेहेचान बनाना..
बार बार टुटकर जुडना क्या यही है जिंदगी ?

कब कहा कौनसा टुकडा क्या रंग दिखायें किसे है पता...
कब कहा कौनसा रिश्ता जुड जायें; या फिर टूंट जायें किसे है खबर!

टुकडों में बटें रिश्तें... माँ, बाप, भाई, बहन, दोस्त, गुरु, साथी...
हर एक का अपना चेहेरा, अपना स्वभाव..
रिश्ता निभाने की अपनी अपनी अदा..
बदलते टुकड़े ना जाने कौनसी नयी मंज़िल दिखायें
या फिर एक नयी उलझन में डालदें ?

इस टुकड़ो में बटीं जिंदगी को सलाम!!

-रसिका